मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर हिंदी मै | mirza ghalib ke sher in hindi

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मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर हिंदी मै | mirza ghalib ke sher in hindi

मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1796 आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ था। पेश हैं मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ मशहूर शेर जिन्हें आप के लिए पूरी इंटरनेट और मिर्जा गालिब की किताबों से लिया गया है।

मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर हिंदी मै | mirza ghalib ke sher in hindi


बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना।

आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना।।

 

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का,

उसी को देखकर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले।

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना।

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।।

 

तोड़ा कुछ इस अदा से ताल्लुक उसने ग़ालिब,

कि हम सारी उम्र अपना क़ुसूर ढूँढ़ते रहे।

 

हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन,

खाक हो जायेंगे हम तुझको ख़बर होने तक।

 

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,

वरना हम भी आदमी थे काम के।

 

आईना क्यों न दूँ कि तमाशा कहें जिसे।

ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।।

 

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,

वो समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है।

 

बेवजह नहीं रोता कोई इश्क़ में ग़ालिब

जिसे ख़ुद से बढकर चाहो वो रुलाता ज़रूर है।

 

ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता।

अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।।

 

ग़ालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर,

या वो जगह बता जहाँ पर ख़ुदा न हो।

 

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल के बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है।

 

दर्द देकर सवाल करते हो।

तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो।।

देखकर पूछ लिया हाल मेरा।

चलो कुछ तो ख़याल करते हो।।

 

फिर उसी बेवफा पे मरते हैं,

फिर वही ज़िन्दगी हमारी है।।

बेख़ुदी बेसबब नहीं गालिब,

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।।

 

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन।

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।

 

इस सादगी पे कौन न मर जाये ऐ खुदा।

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।।

 

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक।

कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।।

 

आशिक़ हूँ पर माशूक़ फ़रेबी है मेरा काम,

मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे।

 

ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।

 

होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने।

शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।।

 

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले


यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,

अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो


हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

 दिल के खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है


उनको देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,

वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है


इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे


तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता


तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हाँ मगर चैन से बसर न हुई

मेरा नाला सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

 

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !


हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,

ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!

 

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

 

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है


न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा

कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है


ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे

वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है


चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन

हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है


जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है


रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है


वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़

सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है


पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार

ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है


रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी

तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है


बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता

वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है


ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं


वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!

कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

 

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को

ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं


तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें

हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं


दोस्तों कैसी लगी आपको यह मिर्जा गालिब के शेर हमें कमेंट में जरूर बताइएगा और शेरो शायरी पसंद करने वाले अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ इस पोस्ट को शेयर कीजिएगा।




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